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Sunday 10 November 2013

सच की लकीरें




तुम जो देख रहे हो
इस काग़ज़ पर
यह सब कोई कविता नहीं
यह मैं हूँ...तुम हो...
हम सब ही तो हैं...
यह तो सच की वो लकीरें हैं
जो हमारे आसपास
चारों ओर हर कहीं
जाल की तरह बिछी हैं
जिनके बीच से अक्सर
रोज़ होता है हमारा गुज़रना
और हम प्राय: उन पर
छोटी-मोटी टिप्पणी कर
बिना ज़्यादा ध्यान या तवज़्ज़ो दिए
बढ़ जाते हैं अपनी मंजिल की ओर
पर हम अगर ध्यान से देखें
तो इन लकीरों में छिपी है एक दास्तान
यही तो हैं वो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़
जिनमें बयाँ है इस संक्रमण काल का सच
जिसमें कितना कुछ नया सृजन हो रहा है
तो कितना ही कुछ पुराना मिट रहा है
यूँ भी बिना मिटाए वक़्त की स्लेट पर
नया लिखा जाना भी तो नामुमकिन होता है ना
इतिहास बनने के लिए वर्तमान को तो मिटना ही पड़ता है
और तब ही तो भविष्य वर्तमान बन जाता है
यूँ भी बिना विदा हुए आगमन
बिना बिछुड़े हुए मिलन
कहाँ संभव है??
                                ******

(हमारे आगामी कविता-संग्रह "सच की लकीरें" से)

2 comments:

  1. सच में ...कुछ नया सृजन हो रहा है ....वाह बहुत खूब

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  2. सच कहा बिना बिछड़े मिलन की संभावना नहीं होती ... सुन्दर काव्य ...

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