हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Sunday 17 November 2013

कल अचानक मिल गया एक पुराना कवि


कल अचानक ही मिल गया एक पुराना कवि
तुरंत पहचान गया हमारी कवि वाली छवि
कुशलक्षेम पूछने के उपरांत
अपनी जिज्ञासा करने को शांत
उसने अपना मुँह खोला
और बडे ही प्रेम से बोला-
आपको देखकर लगता है आप अच्छी लिखी-पढी हैं
फिर आप क्यों कविता लिखने के इस पचडे में पडी हैं
किसी अच्छी मल्टीनेशनल कंपनी में चली जाईए
और फिर आराम से अपना जीवन बिताइए...
मैने उसे बीच में ही टोका
अपनी बात कहने को रोका
मैंने उससे तुरंत पूछ डाला-
कविता करने में क्या बुराई है?
कविता हमारे मन की गाँठों को खोलती है
जो हम ना कह सकें कविता वो भी बोलती है

अंतर्मन की पीडा से मुक्त होने को
लिखता आ रहा है मानव युगों-युगों से
तुलसी ने भी लिखी थी रामायण
स्वान्तः सुखायः के लिए
जो आज ना जाने
कितनों के ही मन को करती है शांत
और भर देती है अपार सुख से

फिर क्यों तुम
पूछते हो मुझसे
कि मैं क्यों लिखती हूँ
अगर पूछना ही है
तो यह पूछो
कि मैं कैसे लिखती हूँ

पुराने कवि ने अपने जीवन में
ना जाने कितना होगा सहा
उसी को ध्यान में रखते हुए उसने
बडी ही विनम्रता से मुझसे कहा-
मैडम! सिर्फ कविता लिखने से ही
पेट तो नहीं भरा जा सकता
ना ही कोई खाली पेट
पढेगा तुम्हारी पुस्तक
लिखने-पढने के लिए भोजन जरूरी है
इसीलिए पूछता हूँ
जीविका चलाने के लिए
तुम क्या करती हो
सिर्फ कविता ही लिखती हो
या कभी अपना और अपने परिवार में
भूखे व्यक्ति का पेट भी भर देती हो..

Saturday 16 November 2013

किताब में रखा हुआ फूल


कल पढते-पढते 
एकाएक ही 
किताब में रखा हुआ
मिल गया एक फूल
और याद दिला गया-
गुज़रे हुए कितने ही हसीं पल
वो हँसता हुआ चेहरा
प्यार से वो आँखें छलछल
ना जाने कितनी ही कसमें
जो कभी निभाई ना जा सकी
और ह्र्दय की ऐसी कुछ बातें 
जो कभी बताई ना जा सकीं
ना जाने कितने ही वादे
जो ना हो सके कभी पूरे
और ना जाने कितने ही ख्वाब 
जो रह गए हमेशा के लिए अधूरे

याद आ गईं और भी
ना जाने कितनी ही बातें
वो उसका बिछुड़ जाना
और वो हसीन मुलाकातें   

अतीत की कितनी ही                                             
खट्टी-मीठी यादों से
मन को भिंगो जाता है
जब कभी पढते-पढते
किताब में कोई फूल
रखा हुआ मिल जाता है

Friday 15 November 2013

शाम



दिन की
ल्हाश को ढोती
रात्रि के
मरघट की ओर
सरक-सरक कर
ले जाती
उदास-उदास सी
शाम.                                                                         
  

Sunday 10 November 2013

सच की लकीरें




तुम जो देख रहे हो
इस काग़ज़ पर
यह सब कोई कविता नहीं
यह मैं हूँ...तुम हो...
हम सब ही तो हैं...
यह तो सच की वो लकीरें हैं
जो हमारे आसपास
चारों ओर हर कहीं
जाल की तरह बिछी हैं
जिनके बीच से अक्सर
रोज़ होता है हमारा गुज़रना
और हम प्राय: उन पर
छोटी-मोटी टिप्पणी कर
बिना ज़्यादा ध्यान या तवज़्ज़ो दिए
बढ़ जाते हैं अपनी मंजिल की ओर
पर हम अगर ध्यान से देखें
तो इन लकीरों में छिपी है एक दास्तान
यही तो हैं वो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़
जिनमें बयाँ है इस संक्रमण काल का सच
जिसमें कितना कुछ नया सृजन हो रहा है
तो कितना ही कुछ पुराना मिट रहा है
यूँ भी बिना मिटाए वक़्त की स्लेट पर
नया लिखा जाना भी तो नामुमकिन होता है ना
इतिहास बनने के लिए वर्तमान को तो मिटना ही पड़ता है
और तब ही तो भविष्य वर्तमान बन जाता है
यूँ भी बिना विदा हुए आगमन
बिना बिछुड़े हुए मिलन
कहाँ संभव है??
                                ******

(हमारे आगामी कविता-संग्रह "सच की लकीरें" से)

Saturday 2 November 2013

आई दीपावली



आई दीवाली
काली अँधेरी रात
हुई रौशन
***    
पूजा-अर्चना
दीप हुए रौशन
हर्षित मन
***    
चले पटाखे
ढेर सारी मिठाई
खील-बताशे
***    
बिखरा किए
फुलझड़ी के फूल
चहके बच्चे
***    
चमके मन
दहके जो अनार
फूल हजार
***    
अंधकार में
खूब छटा बिखेरें
दीपों की माला
***

दीपावली पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं!