हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Monday 12 December 2011

जगह से जुड़ जाती है स्मृति




अक्सर ही
किसी जगह से
जुड़ जाती है
स्मृति
किसी
व्यक्ति विशेष की
और फिर
जब वो व्यक्ति
इस दुनिया से
चला जाता है
तो
हमारे लिए
उस जगह में
एक उदासी
और
बहुत सारा सूनापन
छोड़ जाता है

Thursday 8 December 2011

तुमने देखा है कभी




तुमने देखा है कभी
कोई आठ साल का 
एक दुबला-पतला 
मरियल सा लडका
भीतर को धँसी आँखें
सीने में गिनती करती हड्डियाँ
बदन पर पहने हुए मैले-कुचैले कपडे़
उनमें अलग-अलग रंगों के धागों से
की गई सीवन आकृष्ट करते हुए ध्यान
चेहरे पर जमी कई दिनों की भूख
और उसकी आँखों में चमकते
सामने की दुकान के काउंटर में रखे
ताजा महकते बंगाली रसगुल्ले ›  

Thursday 24 November 2011

अज्ञानता



बाँटने थे हमें
सुख-दुःख
अंतर्मन की
कोमल भावनाएं
शुभकामनाएं और अनंत प्रेम
पर हम
बँटवारा करने में लग गए
जमीन पानी आकाश हवा
और
लड़ते रहे
उन्हीं तत्वों के लिए
जो अंततः
साबित हुए मूल्यहीन                                         

Wednesday 16 November 2011

ना जाने कब?



ना जाने कब
अनजाने में ही
उतर आया प्रेम
जीवन में
चुपचाप
और फिर बस गया
अंतरात्मा में
सदा-सदा के लिए                                                                                                                            

Sunday 13 November 2011

मिलन




फिर जन्मी
एक लता
पली और बढी...
और फिर एक दिन
लिपट गई वृक्ष से
वृक्ष भी
कुछ झुक गया
करने को आलिंगन
लता का                                                                                    

Thursday 10 November 2011

माँ सरस्वती वर दे



माँ सरस्वती वर दे…
हम हैं बालक
मूढ़ अज्ञानी
सुबुद्धि से भर दे
माँ सरस्वती वर दे…

तेरी कृपा हुई जगत में
अच्छा नाम कमाया
तेरी कृपा के बिना माँ
कौन यहाँ पढ़ पाया
हुई प्रसन्न माँ तू जिस पर
वो ही आगे बढ़ पाया
करूँ साधना दिन-प्रतिदिन तेरी
मुझको मोह अज्ञान से तर दे
माँ सरस्वती वर दे…

यही कामना है माँ मेरी
बस साधना तेरी कर पाऊँ
चहुँ ओर जो फैला सागर
भीतर अपने भर पाऊँ
कृपा कर मुझ दुर्बल पर माँ
समर्थ मुझे तू कर दे
माँ सरस्वती वर दे…

तेरी कृपा से ही तो माँ
मैं इतना आगे बढ़ पाई
प्यार छोटों का पाया मैंने
और आशीष बडों से पाईं
सदा काम आ सकूँ सभी के
इस योग्य मुझे तू कर दे
माँ सरस्वती वर दे…


Tuesday 8 November 2011

सुस्वागतम्

मेरे ब्लॉग पर पधारने के लिए आपका आभार!
रचनाओं पर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी!
सधन्यवाद...सारिका मुकेश 

आत्मविश्वाश



तमाम आँधी
और तूफानों में भी
खडा रहूँगा मैं
अपनी जगह पर
दृढता से 
वृक्ष बनकर
तुम निश्चिंत होकर
लिपट जाओ मुझसे
एक लता बनकर                                              

रोज़ गुज़रती है वो लडकी



हाथ में मोबाईल लिए
उसके साथ खेलती
या फिर
उसे कान से लगाए
मुसकुराती, बल खाती
किसी नई फरारी की तरह
मेरे घर के
सामने की सडक से
रोज़ गुज़रती है वो लडकी                                  

जिंदगी की गाडी



जिंदगी की गाडी
जीवन भर
पटरियां ही बदलती रही
ना जाने कितनी ही
लाल बत्तियों पर रूकी
और फिर हरी बत्ती देख
चल पडी...
चलती रही...
लगातार बढती रही
गंतव्य की तलाश में
हाय कितनी दूर था वो
लगता था जो पास में                                             

चाँद पर सूत कातती बुढिया


      
सदियों से चाँद पर
चरखा चला रही है एक बुढिया
कातकर डाल देती है
सूत के ढेर ही ढेर
जिससे बने कुर्ते को पहनकर दिन में
सूरज घूमता है आकाश में नेता बनकर
चाँदनी की श्वेत चादर ओढ प्रेमी बन
चंद्रमा लगाता है पूरी रात चक्कर
और जिससे बनी रजाई में
तारे छिपे पडे रहते हैं सर्दी से बचकर
आकाश में बिखडे पडे हैं रूईं के फोहे
यहाँ-वहाँ  बादल बनकर
और चुपचाप
चाँद पर सूत कातती
चली जाती है बुढिया             

फिर भी
ना जाने क्या बात है
कि चाँद पर सूत कातती
उस बुढिया की
खबर नहीं लाते
चाँद पर जाने वाले                                           

मैं कँवारी ही रहूँगी



तुम्हें मालूम नहीं शायद
पर हक़ीक़त यह है
कि मैं कँवारी हूँ
और रहूँगी कँवारी ही

भले ही भोग लो
तुम मेरा ज़िस्म
पर नहीं छीन सकते
मेरा कँवारापन
क्योंकि कँवारापन
ज़िस्म का नहीं
मन का होता है                                  

Sunday 6 November 2011

तुम्हारे बिना


ज़ेहन में
जीवन की किताब से
फडफडाकर खुलता है
अतीत का एक पृष्ठ
और मेरी आँखों के सामने
फैल जाता है वो दृश्य
जब तुम ले चुके थे
इस संसार से विदा
और धू-धू कर जल रही थी
तुम्हारी चिता
तुम्हें कहाँ पता होगा
कि उस वक़्त मेरे भीतर भी
ना जाने कितना ही कुछ
जलकर राख हो गया था-
ना जाने कितनी ही आशाएं
कितने ही स्वप्न
कितनी ही आकांक्षाएं
और कितने ही प्रयत्न
जो तुम्हारे बिना
अधूरे हो गए हैं
सदा-सदा के लिए                                  

बुढापा


हर किसी को
आना है बुढापा
फिर हम उससे 
क्यों मोडते हैं मुँह?

क्यों नहीं
कर पाते स्वीकार      
जीवन के इस
कटु सच को!                                       

Saturday 5 November 2011

कैसे है नारी अबला


सीता का हरण
बन गया था
रावण का मरण
द्रौपदी का क्रोध
खत्म कर देता है
समूचा कुरूवंश
काली की
प्रचंडता रोकने को
स्वयं शंकर को
लेटना पड़ता है राह में
इस सबके बावजूद
कैसे है नारी अबला
पुरूषों की निगाह में? ∙

गरीबी


लाख गिड़गिड़ाए
वो तुम्हें लाख मनाए
पर तुम
जरा-सा भी
विचलित मत होना
तुम जैसे ही
विचलित हुए
फिर कहाँ कोई
कसर रह जाती है
जरा-सी
जगह मिलते ही
गरीबी आराम से
ज़िंदगी की
बर्थ पर
पूरी तरह से
पसर जाती है ∙

मैं जननी हूँ


अपना सब कुछ
उड़ेल दिया
तुम पर
पर मैं
रिक्त नहीं हुई
बल्कि
मैं खुद को
भरा-भरा सा
महसूस करती हूँ
क्या करूँ
मेरी प्रकृति ही
ऐसी है
कि खाली को
भरकर ही
मैं तृप्त होती हूँ
मैं जननी हूँ
मैं देवों से भी
बड़ी होती हूँ ∙ 

साथ-साथ रहने का सुख


दूर
रहकर ही
चलता है
पता
साथ-साथ
रहने के
सुख का

जो कभी
दूर नहीं रहे
वो नहीं
जान सकते
इसकी महत्ता
सच्चे अर्थों में ∙